Tuesday, 20 December 2011

फ़ितरत


टूट कर बिखर जाना-
तुम्हारी फितरत में है शायद,
आहों को बटोर कर-
फिर इक बार जिलाना,
मेरी फितरत में है शायद..
शायद इन्हीं मुमकिनो  का फ़लसफ़ा,
हमारे साथ रहने कि फ़ितरत है....

तुम टूट कर बार-बार रूठ जाती हो,
मैं रूठने की कोशिश में ढह जाता हूँ,
इन उलझनों की फिसलन में-
बार-बार फिसलते हैं हम,
हम अलग होकर भी साथ रहते हैं हम,
हर नाकामी पल में भी साथ देते है हम,
शायद इन्हीं मुमकिनो का फ़लसफ़ा,
हमारे साथ रहने कि फ़ितरत है.... मनोज