Thursday, 11 August 2011

घर से दूर

आज आँखों में कुछ नमी सी है,
लगता है घर में बारिश हो रही है,
उडती हवाओं की तबीयत ढीली सी है..,
लगता है उलझी हुई कोई पहेली सी है,
मैं घर से दूर कभी रहता नहीं..
चौराहें  में यूँ ठहरता नहीं..
आज अँधेरी हो चुकी है राहें,
लगता है घर की रोशनी कहीं दूर है.......मनोज

एक अर्शा

तुम्हें देख एक अर्शा हो गया..
न स्पर्श और नहीं ही आवाज़..
अब तो ऐसा लगता है-
तुम्हारी  यादें किसी खँडहर में  तबदील सी  हो गयी हैं,
मेरी आँखों में तुम्हारा चेहरा 
किसी पुरानी तस्वीर में पड़े धुल की तरह..
धुंधलाने लगी है..
कमजोर हो चला हूँ अपनी यादों में,
तुम्हारी पड़ी हुई, न जाने कितनी ही  यादों को,
अपनी चारपाई के नीचे बिखरे हुए देखता हूँ..
हिम्मत नहीं उन्हें समेटने की..
कहीं तुम्हारा चेहरा न दिख जाए, ये सोचता हूँ..
अब जो  बाकी है इस ज़िन्दगी में..
वो बस तुम्हें भूलने में..खर्च कर रहा हूँ.. मनोज

आख़री ख़त

शायद तुम्हारे लिए ये ख़त आख़री हो,
पर मेरे लिए तुमसे बिछुडने की शुरूआत...
दिल के हर सफे में गहरी छाप है तुम्हारी
फिलहाल ये न मिट पाएंगे...
फिलहाल इसलिए कि इसके बाद कहीं ये दिल-
धड़कना ही न बन्द कर दे...,
फिर तो जिश्म की सारी बात...
कब्रे मिट्टी हो जाएगी,
खेर!
इस उम्र में तुम्हारी ये बेरूखी..
मुझे अपनो के बीच घुटन सी लगने लगती है,
आँखें बन्द करता हूँ तो-
खेतों की पगदंडियों में,
तुम्हारे पैरों के निशान दिखने लगते हैं,
किचड़ की सोंधी-सोंधी सी  खुशबू में-
तुम्हारी महक आने लगती है,
पुरानी सारी बातें, उड़-उड़कर जा जाती है,
तन्हाई के इस आलम में मेरी सांसो को तनहा कर जाती है,
मैं जागते हुए भी सपनों में रहता हूँ,
याद बरसों की पर तुममें रहता हूँ,
अब! मेरा ये आख़री ख़त-
सिर्फ तुम्हारे लिए है,
जब तुम अमन-ए-नींद से जागो-
तो ख़त का जवाब जरूर देना,...........मनोज