Thursday, 11 August 2011

एक अर्शा

तुम्हें देख एक अर्शा हो गया..
न स्पर्श और नहीं ही आवाज़..
अब तो ऐसा लगता है-
तुम्हारी  यादें किसी खँडहर में  तबदील सी  हो गयी हैं,
मेरी आँखों में तुम्हारा चेहरा 
किसी पुरानी तस्वीर में पड़े धुल की तरह..
धुंधलाने लगी है..
कमजोर हो चला हूँ अपनी यादों में,
तुम्हारी पड़ी हुई, न जाने कितनी ही  यादों को,
अपनी चारपाई के नीचे बिखरे हुए देखता हूँ..
हिम्मत नहीं उन्हें समेटने की..
कहीं तुम्हारा चेहरा न दिख जाए, ये सोचता हूँ..
अब जो  बाकी है इस ज़िन्दगी में..
वो बस तुम्हें भूलने में..खर्च कर रहा हूँ.. मनोज

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