Thursday, 22 September 2011

नफ़रत


तुम पाल लो नफ़रत को,
गहरे अन्दर तक, 
और भी गहरे,
अपनी जिद्द  की आखरी  हद तक ,

अबकी तुम्हें नहीं मनाऊँगा,
और न ही किसी को समझाने-
तुम्हारे पास भेजुँगा,

तुम्हें करने दूँगा, हर वो प्रयास,
जिससे, तुम नीचता की हर हदें,
पार कर सको ,

दौड़ा लो अपनी शैतानी-
दिमाग के घोडे़,
जिसे तुम अपनी परम्परा मानते हो,
अपनी जागीर की तरह,
जिसको तुम चलाना चाहते हो,
उसे तुम चला लो,
दम रहने तक,
दम तुम्हारा भी,
दम उसका भी,

फिर चाहो तो तुम अपना,
मनचाहा साथ भी  ले सकते हो,
पूरी नरायणी सेना ! 
और फिर टकरा जाओं,
अपनी नफ़रत के बल से, 
मेरे प्यार की दीवार पे,

और इसके बाद भी,
तुम्हारा दिल न भरे तो,
उठा लो खंज़र,
वार करो,
जब तक मेरे खुन का-
एक भी कतरा, मेरे शरीर मंे रहे,
तब तक वार करो,
इस बिच,
मुझे  तड़पता हुआ देख,
पिघल न जाना,
नफ़रत की आग को,
ठण्डा होने न देना,
उसे और भी गर्म कर लेना,
लोहे की पिघलने वाली गर्माहट तक,
और इन सब के बाद,
जब तुम्हारा शरीर और दिमाग-
थक कर चुर हो जाए,
तो एक बार अपने -
मुर्दा शरीर की इच्छाओं को छोड़कर,
चिन्तन करना !
कि तुम क्या थे.....
और क्या हो गये......  मनोज

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