कुछ कागज़ के बिकते हुए फूल..
बाज़ार की पगडंडियों में टंगे हुए फूल..
अभी कुछ देर पहले,
अपनी चमक से मेरी आँखों को भ्रमित करता फूल,
ये कागज़ के हैं, जानता हूँ..
इसमें, ऊपर से छिड़की हुए खुशबू है, जानता हूँ..
उसमे जिंदे फूल का एहसास नहीं है, ये भी मैं मानता हूँ..
फिर भी उसकी चमक..
मेरे दिल में गहरी है..
एक, न मिटने वाली छाप की तरह ,,
अब चाहूँ भी तो उसे छोड़ नहीं सकता..
क्योंकि मेरे घर से बाज़ार की सीढियाँ दूर नहीं....मनोज
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