Monday, 21 November 2011

यूँ ही ढूंढ रहा था, मैं अपने कल को

यूँ ही ढूंढ रहा था, मैं अपने कल को,
तंग बाज़ार की भीड़ में,
रिकशे के घुमते पहियों की तरह,
यादों की नज़रों से ढूंढ रहा था, मैं अपने कल को....

 कुछ उलझी हुई सी थी,
इमारतों की खेती के दरमियां 
अपनों की कमी और. एक लम्बी कतार-
आँख खोल कर सोने वालों की..
इनके बीच ढूंढ रहा था, मैं अपने कल को,

उन रास्तों को समझने की कोशिश कर रहा था,
जहाँ आख़री बार-
मेरी साईकल के पहियों की छाप छुटी थी,

पर कुछ झंझट सी है इन गलियों के बीच,
बेतहासा सजावट के बीच..
इनसे निकलती तेज़ रोशनी-
भटका रही थी मुझे,
फिर भी इस हाल में-
ढूंढ रहा था मैं अपने कल को...

ढूंढ रहा था,
उन लम्हों को,
भीगते बालों की उस महक को,
खुबसूरत सी थी, इन गलियों में-
खिलखिलाती यादें...
उसकी सोच ढूंढ रही थी ये  आँखें ,

खैर  !
जमीन का ये हिस्सा,
अपनी आकार के हिसाब से आवाज़ दे रहा है..
कि ढूंढ लो अपने कल को...
मेरे इस आज में...........मनोज 

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