Monday 21 November 2011

"सच की तलाश जारी है "

 सच को ढूंढ़ता हूँ मैं..
अपने अन्दर और बाहर,
कीचड़ में  लतपत खुले मैदान में,
तुम्हारा सच या मेरा सच..
या उड़कर मेरे कानों तक आते, वो अनगिनत सच..
ढूंढ़ रहा हूँ मैं..
तुम्हारे  मुह से निकले हर शब्द के सच को  ..

तलाश है मुझे-
इन ऊँचे-ऊँचे पंडालों के बीच में बैठे  सच की..,
अगल बगल झांक लो..
कहीं तुमसे तुम्हारी बात न छुट जाए !
इस जन शैलाब  में तुम्हारा मैं, अपने सच पर   हावी  न हो जाए..

ये  सब मुमकिन है ..
मामूली सी बात है..ये,
हजारों मस्तिष्क  के हर कोशिकाओं में..
रोज करोड़ों सच तैरती हैं..
वो तैयार है  अपने सच से,  तुम्हरे सच को काटने के  लिए..
 तलाश है उन्हें, कीचड़ की भीड़ में
 भटकते एक सच की,
जिसे पकड़,-
वो तुम्हारे आँत की लम्बाई नाप सके..
तुम्हारे रुतबे के सामने, ये मुश्किल जरुर है..
पर नामुमकिन नहीं है..       "सच की तलाश जारी  है ".. मनोज

यूँ ही ढूंढ रहा था, मैं अपने कल को

यूँ ही ढूंढ रहा था, मैं अपने कल को,
तंग बाज़ार की भीड़ में,
रिकशे के घुमते पहियों की तरह,
यादों की नज़रों से ढूंढ रहा था, मैं अपने कल को....

 कुछ उलझी हुई सी थी,
इमारतों की खेती के दरमियां 
अपनों की कमी और. एक लम्बी कतार-
आँख खोल कर सोने वालों की..
इनके बीच ढूंढ रहा था, मैं अपने कल को,

उन रास्तों को समझने की कोशिश कर रहा था,
जहाँ आख़री बार-
मेरी साईकल के पहियों की छाप छुटी थी,

पर कुछ झंझट सी है इन गलियों के बीच,
बेतहासा सजावट के बीच..
इनसे निकलती तेज़ रोशनी-
भटका रही थी मुझे,
फिर भी इस हाल में-
ढूंढ रहा था मैं अपने कल को...

ढूंढ रहा था,
उन लम्हों को,
भीगते बालों की उस महक को,
खुबसूरत सी थी, इन गलियों में-
खिलखिलाती यादें...
उसकी सोच ढूंढ रही थी ये  आँखें ,

खैर  !
जमीन का ये हिस्सा,
अपनी आकार के हिसाब से आवाज़ दे रहा है..
कि ढूंढ लो अपने कल को...
मेरे इस आज में...........मनोज 

एक बार तो पूछ लिया होता

एक बार तो पूछ लिया होता,
कि मेरे बिन तुम रहोगे कैसे ?
मेरी आदत है तुमसे, कि पूछा नहीं तुमने,
कि मेरे बिन तुम संभलोगे कैसे ?

एक जीश्म ही सांझा नहीं था अपना,
सांझी थी हर बात अपनी,
एक बार भी नहीं पूछा तुमने,
कि तुम अकेले रहोगे कैसे ?

अब तो उम्र भर आँख बहेगी,
देखकर दुनिया ये कहेगी,
तुम भी अपना मन बनालो,
आगे बढ़कर जिन्दगी संभालो,

हाय रे ! इन्हें कैसे समझाऊँ,
जीश्म है मेरा, 
रूह नहीं है,
तेरे संग वो समा गई है,
एक बार भी नहीं पूछा तुमने,
कि  बिन रूह जी पाओगे कैसे ?.....मनोज