सच को ढूंढ़ता हूँ मैं..
अपने अन्दर और बाहर,
कीचड़ में लतपत खुले मैदान में,
तुम्हारा सच या मेरा सच..
या उड़कर मेरे कानों तक आते, वो अनगिनत सच..
ढूंढ़ रहा हूँ मैं..
तुम्हारे मुह से निकले हर शब्द के सच को ..
तलाश है मुझे-
इन ऊँचे-ऊँचे पंडालों के बीच में बैठे सच की..,
अगल बगल झांक लो..
कहीं तुमसे तुम्हारी बात न छुट जाए !
इस जन शैलाब में तुम्हारा मैं, अपने सच पर हावी न हो जाए..
ये सब मुमकिन है ..
मामूली सी बात है..ये,
हजारों मस्तिष्क के हर कोशिकाओं में..
रोज करोड़ों सच तैरती हैं..
वो तैयार है अपने सच से, तुम्हरे सच को काटने के लिए..
तलाश है उन्हें, कीचड़ की भीड़ में
भटकते एक सच की,
जिसे पकड़,-
वो तुम्हारे आँत की लम्बाई नाप सके..
तुम्हारे रुतबे के सामने, ये मुश्किल जरुर है..
पर नामुमकिन नहीं है.. "सच की तलाश जारी है ".. मनोज