Monday 1 August 2011

मीलों लम्बी तमन्नाएँ..ख्वाबों में लाखों टिमटिमाते सितारें..
और न जाने क्या क्या..
इस सफ़र में .. ( मनोज)
हज़ारों ख्वायिशें  पल कर मर जाती है
दर्द हवाएं आँखों से टकरा जाती है..
फिर भी सांसे चलती है..
ये ज़िन्दगी यूँ ही लहराती है,
साहिलों में तनहा रेत छोड़ जाती है..
मुकम्मल कहीं से नहीं..
न गम..न हसीन ज़िन्दगी..
हर लम्हा यूँ ही कट जाती है..
फिर भी ये सांसें चलती है.....मनोज

बस की खिड़की से

बस की खिड़की से, वो रोज़ मेरी आँखों से टकराती है..
हाथों में फूल लिए हल्की सी मुस्काती है..
उसे मालूम है, मैं चलता राही हूँ..
आँखों से गुज़रता हुआ एक पल का साथी हूँ..
फिर भी वो हाथों में गुलाब लिए.
मेरे करीब आती है..
आँखों में फूलों की हजारों तस्वीरें..
होंटों से कुछ कह जाती है..
मैं चाहकर भी अपने को  नहीं रोक  पाता हूँ..
रोज़ उसके हाथों से फूल घर ले जाता हूँ..
मेरे घर में वो फूल, गुलदस्ते में सजा होता  है..
और उसके घर के चूल्हे  में आग जल रहा होता है ....मनोज
मैंने सुना है तुम्हारे दर्द की हर आहट को..
महसूस किया है प्यास की हर एक घूंट को..
राहा चलते रोज देखता हूँ-
तुम्हारी मैली चादर को !
बिखरे हुए तमाम उन सिक्कों को 

धूल में सने भूख के हर टुकड़ों को..
चुभती है मुझे भी-
खटकती है मुझे भी,
पर!
खुली आँखों से बंद कर लेता हूँ,
अपने जज्बातों को......मनोज
रोज चलता हूँ उन रास्तों पर-
जहां मय्यत के आंसू गिरते हैं,
गम-ए-हालत इस महफ़िल में-
न जाने कितने लोग मिलते हैं..
पथरीले चहरों में नज़ारे खौफ़ दिखते हैं..
न जाने अँधेरी रातों में-
सितारे टूटे मिलते हैं...
रोज चलता हूँ उन रास्तों पर-
जहां मय्यत के आंसू गिरते हैं,......मनोज