Sunday 8 July 2012

मेरी दस नई कवितायेँ


अर्थहीन 

कभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं
इस दिमाग की सोच से परे
किसी और अर्थ की तलाश में



रेत के कण

कई बार आंखें भींगना बन्द कर देती हैं
किसी सूखते हुए तालाब की तरह
और अपने पीछे छोड़ जाती हैं
रेत के कुछ कण
जो उम्र भर
दर्द के किनारो में बसी रहती हैं


डर से परे

बस एक मौत की कमी है जि़न्दगी में
डर से परे उड़ने के लिए



नींद

नींद की गहरी सांस
मीठी, एक बंधन मुक्त नदी सी
आंखों में बहती हुई





शाम की नींद

अक्सर शाम को झपकी आ जाती है
दबे पांव नमी सी नींद लिए
किसी वीराने में बारिश की बूंदों की तरह
और छलक जाती हैं
मेरी आंखों की बस्ती में
शीतल जल की तरह




परछाई से दूर

इस बार उड़ गया जो
पंख नहीं गिनूंगा अपने
दूर गगन में उड़कर
परछाई से दूर चलूंगा अपनी
श्वेत ही श्वेत गगन में
रौशनी संग रहूंगा अपनी
इस बार उड़ गया जो..........





जीवन चेतना 

उग आया सूरज
काले ब्रहमांड के गर्भ से
काल चक्र की चकरी में
समय की धारा बहने लगी
अशून्य से शून्य की ओर
जीवन चेतना जगने लगी


तलाश

सुबह से कुर्सी में बैठा
अपने सपनों को सहला रहा हूँ
आंखें बंद करके
किसी अपरिचित धुन को याद कर-
खुश होने की वज़ह तलाश रहा हूँ






कहीं दूर

आओ उलझ जाएं अपने आप से
ज़ेहन में छपे हर लफ़्ज़ को मिटाकर 
उलझ जाएँ अपने खालीपन से 
सोच नहीं, विचार नहीं
न ही किसी क़ायदे का ख़ौफ़ 
बस अपने अन्दर की भीड़ से 
कहीं दूर जाएँ

बेवज़ह 

बेवज़ह हँसके भी देख लिया 
और रोने की वज़ह भी ढूंढ़  ली 
निकाल फेंके सारे गिले-शिकवे 
और मुर्दा रहकर भी देख लिया 
इस शरीर को चैन नहीं 
और रूह दोज़ख़-जन्नत ने ले लिया