Monday 4 April 2011

तेरी मर्जी

हर बस्ती, हर आलग,
तेरी ही मर्जी
फ़रियाद भी तू
फरियाद की चाहत भी तू ;
ढूँढू जिसे-
वो अनजाना भी तू ,
मैं और तू
दरिया का पानी भी तू
और रूह की प्यास भी तू
तुझे समझूँ -
ये तेरी तमन्ना है,
न समझूँ तो, तेरी ख्वाहिश;
हर सोच की तह भी तू
और तकरार भी तू
बस मैं और तू...... 

---मनोज---

ज़रा-ज़रा सी

ये छुवन ज़रा-ज़रा सी,
तेरे कोमल अविरालों की,
मुग्द सुगंध, केश लटाएं-
तेरी उलझन ख़्यालों की,
पद-पथिक हुआ न कोई-
पीये नयन प्यालों की,
साँझ की करवट हुआ न मेरा-
दूर अक्षित सवालों की,
ये छुवन ज़रा-ज़रा सी-
तेरे  कोमल अविरालों की....

आत्म स्पंदन



घर की छप्पर में-
सूख रही है मेरे बचपन की रीत 
माँ ने रखी थी, पोटली में ‘जीवन बीज़’
पुरानी हो चुकी है,
पोटली में बंधे ये बीज़ 
शायद ! गेहूँ का हो 
या फिर धान का !
किसे ख़्याल-
एक अर्सा हो गया, इस घर में,
अब बोया नहीं जाता कोई बीज़ 

सिलन की सफ़ेदी में,
यादें कुछ गिली सी हो गई हैं,
माँ के आंचल का कुछ टुकड़ा 
कौने में सिमटा हुआ है,
शायद! उस वक़्त का हो,
जब यहाँ जवानी, हंसा करती थी,
या उस पल का,
जब माँ गुनगुनाया करती थी 
किसे ख्याल-
एक अर्सा हो गया इस घर में,
अब गाया नहीं जाता कोई गीत,

टूटे हुए मटकों में,
पानी की वो प्यास-
झालियों से भरी अलमारी में,
भविष्य की वो आस,
शायद ! मेरे खिलौने हो 
या फिर माँ के टूटे गहने,
किसे ख्याल-
एक अर्सा हो गया इस घर में 
अब कोई नहीं मनाता तीज़.. मनोज

शान्त

शान्त और शून्यबोध
मन की हर पगदंडी
अलशाए मस्तिष्क चित्रों में,
सुनी है जिन्दगी,
बस अब-
चुटकी भर माटी फैर दो
मेरे माथे पर ,
फिर लगा दूँ आँखों में
सूर्य की पाबंदी