Monday, 1 August 2011

बस की खिड़की से

बस की खिड़की से, वो रोज़ मेरी आँखों से टकराती है..
हाथों में फूल लिए हल्की सी मुस्काती है..
उसे मालूम है, मैं चलता राही हूँ..
आँखों से गुज़रता हुआ एक पल का साथी हूँ..
फिर भी वो हाथों में गुलाब लिए.
मेरे करीब आती है..
आँखों में फूलों की हजारों तस्वीरें..
होंटों से कुछ कह जाती है..
मैं चाहकर भी अपने को  नहीं रोक  पाता हूँ..
रोज़ उसके हाथों से फूल घर ले जाता हूँ..
मेरे घर में वो फूल, गुलदस्ते में सजा होता  है..
और उसके घर के चूल्हे  में आग जल रहा होता है ....मनोज

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