Wednesday 18 January 2012

ऊँचें इमारत

मैं जब भी ऊँचे इमारतों को देखता हूँ,
तो मेरे सपनो का ख़र्च बड़ जाता है,
उम्मीदें हवा में उड़ती जरूर है-
पर पंख फैलाए उम्र गुज़र जाती है,
इस दिल में रोज़ नए अरमां उगते हैं,
और पुराने ढह जातें हैं ,
मैं जब भी ऊँचे इमारतों को देखता हूँ,..... 

---मनोज--

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर रचना, सुन्दर भावाभिव्यक्ति , बधाई.

    कृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen " पर भी पधारने का कष्ट करें.

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