Monday 4 April 2011

आत्म स्पंदन



घर की छप्पर में-
सूख रही है मेरे बचपन की रीत 
माँ ने रखी थी, पोटली में ‘जीवन बीज़’
पुरानी हो चुकी है,
पोटली में बंधे ये बीज़ 
शायद ! गेहूँ का हो 
या फिर धान का !
किसे ख़्याल-
एक अर्सा हो गया, इस घर में,
अब बोया नहीं जाता कोई बीज़ 

सिलन की सफ़ेदी में,
यादें कुछ गिली सी हो गई हैं,
माँ के आंचल का कुछ टुकड़ा 
कौने में सिमटा हुआ है,
शायद! उस वक़्त का हो,
जब यहाँ जवानी, हंसा करती थी,
या उस पल का,
जब माँ गुनगुनाया करती थी 
किसे ख्याल-
एक अर्सा हो गया इस घर में,
अब गाया नहीं जाता कोई गीत,

टूटे हुए मटकों में,
पानी की वो प्यास-
झालियों से भरी अलमारी में,
भविष्य की वो आस,
शायद ! मेरे खिलौने हो 
या फिर माँ के टूटे गहने,
किसे ख्याल-
एक अर्सा हो गया इस घर में 
अब कोई नहीं मनाता तीज़.. मनोज

1 comment:

  1. very beautifully written!!well done. It gives me pangs of seperation from my mother. Good job.

    Vartul

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