Friday 3 February 2012

ढलती उम्र की ख़ामोशी

ढलती उम्र की ख़ामोशी,
बदहवास, फिज़ाओं में घुल जाती,
जब, मेरे दादा जी की आँखों में-
बरबस ही दादी बह जाती,

पापा कहते हैं,
ये गुज़रे ज़माने की बात है,
जब दादी की आवाज़-
उनके चेहरे की रौनक हुआ करती थी,
जब बुढ़ापे की लाठी की तरह-
दादी हर वक़्त साथ रहा करती थी,
पर आज !
उनके उम्र से कोशो दूर,
दादी छुट गयी,
मिट्टी सी याद थी-
मिट्टी में मिल गयी,

बस कुछ यादें बाकी हैं,
जिनके सहारे कभी कभार,
हम भी उन्हें याद कर लेते हैं,

---मनोज



No comments:

Post a Comment